
बाँकेबिहारी जी महाराज की यश-पताका आज संपूर्ण विश्र्व में लहरा रही है। रसिक सखी सम्प्रदाय के प्रवर्तक अनन्त श्रीविभूषित स्वामी हरिदास के ये लाड़ले ठाकुर करोड़ों भक्तों के आराध्य हैं। श्रीबाँकेबिहारी का भूलोक में आविर्भाव स्वामी हरिदास की अनन्य साधना के फलस्वरूप श्रीधाम वृंदावन के निधिवन में मार्गशीर्ष (अगहन) मास के शुक्लपक्ष की पंचमी में हुआ था। वस्तुत: यह तिथि स्वामी हरिदास के भतीजे और प्रिय शिष्य बीठलविपुल की जन्मतिथि थी, जो उनके साथ ही घर-परिवार छोड़कर वंृदावन आ गए थे। एक बार स्वामी जी ने उनके जन्मदिन पर उन्हें कुछ सौगात देनी चाही तो बीठलविपुल ने उनसे अपनी यह इच्छा व्यक्त की- मेरी केवल एक चाह है, आपके प्राणाराध्य श्यामा-कुंजबिहारी के सगुण स्वरूप की एक झलक पाना। यह अनुरोध सुनकर स्वामीजी ने अपने तानपूरे पर तान छेड़ी। निधिवन में एक अलौकिक प्रकाश-पुंज प्रकट हुआ, जो धीरे-धीरे बढ़ता गया। उस दिव्य प्रकाश के मध्य परस्पर हाथ थामे मुस्कुराते हुए श्यामा-कुंजबिहारी के दर्शन हुए। स्वामी हरिदास ने प्रिया-प्रियतम की स्तुति में गाया- माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर-स्याम घन-दामिनि जैसें। स्वामी जी के आग्रह पर श्यामा-कुंजबिहारी एक-दूसरे में समाहित हो गए। दोनों ज्योतिर्मय रूपों के मिलने से युगल छवि बाँकेबिहारी के स्वरूप में प्रतिष्ठित हो गई और मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी उनके प्राकट्य की तिथि बनकर विहार पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हो गई। भक्तों के लिए यह दिन महापर्व बन गया। गोस्वामी केशवदास श्रीबाँकेबिहारी के प्रकट होने के समय हुए उत्सव का वर्णन करते हुए कहते हैं- अगहन सुदी पंचमी के दिन प्रघटे कुंजबिहारी।... श्रीहरिदास मगन-मन नृत्यत, लै-लै-कैं बलिहारी। द्वापरयुग में अवतरित योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर 125 वर्ष प्रकट-लीला करके स्वधाम को प्रस्थान किया। उनकी जन्मतिथि भाद्रपद कृष्ण अष्टमी है। लेकिन निकुंज में नित्यविहाररत श्यामा-श्याम के युगलस्वरूप के सगुण साकार रूप लेने की तिथि मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी है। इसी कारण वृंदावन में श्रीबाँकेबिहारी का मुख्य उत्सव अगहन सुदी पंचमी के दिन ही मनाया जाता है। जब तक बिहारी जी की निधिवन में पूजा-सेवा होती रही तब तक प्राकट्योत्सव वहीं मनाया जाता रहा। कालान्तर में बिहारी जी की अर्चना तथा भक्तों को दर्शन में सुविधा हेतु पृथक मंदिर बन जाने पर विहार पंचमी का उत्सव अब दोनों जगह मनाया जाने लगा है। इस महोत्सव की तैयारियां कई दिन पहले प्रारंभ हो जाती हैं। विहार-पंचमी के दिन प्रात:काल से मंदिर के द्वार पर शहनाई बजना शुरू हो जाती है। पूरे मंदिर को बहुत सुंदर ढंग से सजाया जाता है। अभिषेक के बाद दर्शन खुलने पर भक्तगण श्रीबाँकेबिहारी की अनुपम छवि को देखकर धन्य हो जाते हैं। उधर निधिवनराज में स्वामी हरिदास जी की समाधि तथा श्रीबाँकेबिहारी की प्राकट्य-स्थली का भी अपूर्व श्रृंगार होता है। स्वामी हरिदास जी की सवारी निधिवन से बाँकेबिहारी के मंदिर की ओर प्रस्थान करती है। इस शोभायात्रा में श्रद्धालु बड़े उत्साह के साथ सम्मिलित होते हैं। धूम-धाम और गाजे-बाजे के साथ निकलने वाली स्वामीजी की सवारी का अनेक स्थानों पर स्वागत होता है तथा जगह-जगह आरती उतारी जाती है। संपूर्ण वृंदावन श्रीबाँकेबिहारी और उनके प्राकट्यकर्ता स्वामी हरिदास की जय-जयकार से गूँज उठता है। गोस्वामी बैनीदास ने विहार-पंचमी के महोत्सव का अति सजीव शाब्दिक चित्रण किया है- स्वामीजी कैं नौबत बाजै। कुंजबिहारी प्रघट भये हैं, वृन्दावन-घन-गाजैH द्रुम-पल्लव-फल-फूलन-फूलै, नाना रंग समाजै। रतन-जटित सिंहासन आसन, ता पर स्याम विराजैH अष्टसखी सब टहल महल में, तिन कर सम्पति छाजै। दास बैन पद-पंकज परसैं, सब सुख की निधि आजैH उपर्युक्त पद्यों के एक-एक शब्द से श्रीबाँकेबिहारी के आविर्भावोत्सव का दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। नि:संदेह विहार-पंचमी के दिन वृंदावन पहुँचने वाले इस महोत्सव का आनन्द लेंगे किंतु जो लोग वहाँ जा सकने में असमर्थ हों, वे अपने घर पर ही श्रीबाँकेबिहारी की छवि का श्रृंगार करके भजन-कीर्तन करते हुए प्राकट्योत्सव मनाएं। बिहारीजी भक्तवत्सल हैं। जो उन्हें जिस भाव से ध्याता है, वे उसे उसी रूप में अपना प्रसाद देते हैं।
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